मोहनलाल अपने एकलौते बेटे के लिए रात-रात भर ऑफिस से जल्दी लौटते नहीं थे। ओवरटाइम जो करते थे! बदले में उनका टाइम ओवर होने लगा। अपने जीवन की उपयोगिता संतान के उपभोग में लगाकर कब रोगों की दुकान बन गए, पता ही नहीं चला। पुरानी पड़ती तख्ती पर नन्हीं उंगलियाँ कहाँ खरोंच खा जायेंगी डर के मारे नई नवेली तख्ती का इंतजाम करने वाला मोहनलाल आज रात का बचा हुआ चावल खुरच-खुरच कर खाने पर मजबूर है। खुद भूखे पेट अल्सर की भेंट चढ़ गया, लेकिन कभी चू तक नहीं की। बदनभर जमाने की थपेड़ों के निशान लिए बच्चे के चेहरे पर मुस्कान का पता बनकर जीने वाला पिता, जीते जी अपने संतान की आँखों से लापता हो गया है।
बेटा इतना बड़ा हो गया कि बूढ़े नसों वाले मोहनलाल की छोटी गल्ती भी देशद्रोह लगने लगा है। खाते समय थाली से चावल के दाने बाहर गिर जाएँ तो रात-रात भर ठिठुरती सर्दी में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। जिस बच्चे को बूढ़ा पिता अपनी दुनिया समझता था, वही आज उसे दुनिया का बोझ मानता है। जिन आँखों ने सपने संजोए थे उन आँखों ने एक अदद ऐनक की कमी में अपनी रोशनी खो दी। बच्चे की हजारों गल्तियों को खुशी-खुशी सहने वाला पिता आज एक छोटी सी गल्ती पर ताने-लतियाने और काँपते हाथों से गिड़गिड़ाने का चलता-फिरता पुतला बन गया है। सच है, जीवन में बुढ़ापा जीते जी नरक देखने का धाम है। आज मोहनलाल जीवन के अर्थशास्त्र में अधिकतम उपयोगिता के चलते एक ऐसी रद्दी बन चुका है, जिसकी कीमत कबाड़ी वालों की नजरों में जीरो बटा लूल है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त