सोचती रही, गढ़ती रही, "धागों को बुनती" रही ,
वक़्त के ताने-बाने में जिंदगी स्वयं ही बंधती रही !!
हां, होते हैं स्वभाव हर किसी के ही अलग-अलग ,
पर, मैं स्वयं के दायरों में उलझकर सुलझती रही !!
न पूछा, न कुछ कहा , न ही की कोई जवाबदेही ,
सभी नियति के "फैसले" चुपचाप स्वीकारती रही !!
मैंने सभी मौसमों को जिया, देखी बहारें भी सभी ,
जानें क्यों, "पतझड़ के पत्तों" को भी चुनती रही !!
रुसवा रही खुद से, तो कभी "वक्त" से नाराज़ सी ,
क्यों किसी एक से ही शिकायतें सभी करती रही !!
हां, कुछ तो है जरूर जो रहा अनकहा अब तक ,
कविताएं मेरी मगर, किसके नाम से सजती रही !!
हां, चलती रही मैं..मगर, राह उसकी तकती रही ,
ये किसकी लिखी कहानी का किरदार बनती रही !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ , उत्तर प्रदेश