राज़ नहीं कोई गहरा फिर भी भीतर से भरा लबरेज़ हूँ, ज़िस्त मेरी जिम्मेदारीयों का कंटीला झमेला है..
अश्कों का आदी होना शोभा नहीं देता मेरे पीछे जुड़ा मर्द का उपनाम बड़ा सजीला है मर्द हूँ तो क्या हुआ दर्द मुझे भी होता है..
सहनशील समुन्दर हूँ समेटे रहता हूँ साज़ कई, बजाता रहता है हर कोई परिवार की प्रीत का मारा हूँ..
करूँ चाहे सम्मान कितना माँ, बहन, बेटी हर स्त्री ज़ात को जानूँ, फिर भी कुछ आँखों से बहती संदेह की कटार से छलनी हूँ..
गाती है हर शै ज़माने की नारियों के गुणगान, मानों नारी को महान भले पर छूकर देखो हौले से, मर्दों के ज़ख़्म भी गहरे है..
मोहताज नहीं तारिफ़ों का न सम्मान की ख़्वाहिश कोई, बखूबी निभाए जाता हूँ लादी गई हर ज़िम्मेदारी..
छप्पर हूँ परिवार का आधार पे मेरे घर टिका है, विराट मेरी है शख़्सीयत फिर भी पन्नों पर किसीने नहीं उकेरा है..
भावना ठाकर 'भावु' (बेंगुलूरु)