फुर्सत के क्षण

निहारूँ इक नजर,

कि तेरा दीदार हो जाए,

जमीं की तलबगार हूँ।

सर छुपाने को एक टुकड़ा,

आसमां मिल जाये।

वो हर बार मेरी इम्तिहान,

लेता है और मैं हर दफा,

पास हो जाती हूँ

कमबख्त!तू जिंदगी है या मौत

बेखबर सी हो गई जिंदगी,

खबर उन तक न पहुँच पाई,

वो अखबार समझ पढ गये,

मैं इश्तिहार रह गई।

गर सबके मुकद्दर में घर होता

तो किराए दार कौन बनता।

खुन के रिश्ते भी अब,

बदलने लगे हैं

पराये खून जो रगो में

चढने लगे हैं।

जिंदगी में अंधेरों का

आना भी जरुरी है

वरना उजालों की कद्र कौन करता

रिश्ते टूटे पत्तों सा विखर कर

ठूंठ हो गये कुछ सुखकर

उड़ गए तो कुछ खाक हो गये

चिता भी मैं चिंता भी मैं

हर हाल में मुझको मरना है

कभी मुर्दा तो कभी जिंदा

हर हाल में मुझको जलना है

जो कांटों पे चलते हैं

उन्हें अंगारे भी फूल नजर आते हैं।


लता नायर,वरिष्ठ कवयित्री व 

शिक्षिका,सरगुजा-छ०ग०