मन दर्पण कहलाता है

तोरा मन दर्पण कहलाये

भले बुरे सारे कर्मो को

देखे और दिखाये

इस गीत के माध्यम से मानव को सलाह दी जाती है कि,विषम स्थितियों में मन को शांत रखों।मन बहुत चंचल होता है।

सन 1965 में प्रदर्शित काजल फ़िल्म में मन को सम्बोधित करते  गीतकार साहिर लुधियानवी ने गीत लिखा है।यह सिर्फ गीत ही नहीं है,कृष्ण भक्ति का भजन भी है।

गीत की पहली पंक्ति में कहा है, यदि व्यक्ति स्वयं के मन को पा लेता वह प्रभु को भी पा लेता है।

गीत में कहा है कि,मन,मानव के मानस का दर्पण है।जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण है।गीतकार ने कल्पना की है,

मन दर्पण इसलिए है कि,मन की आँखे हजार होतीं हैं।

मन ऐसा दर्पण है कि, मानव के भले और बुरे कर्मो को स्वयं मानव को दिखता है,और समाज भी मानव के अच्छे बुरे कर्मो देख पाता है।

कोई भी अपराध करने वाला व्यक्ति संसार से भले ही पलायन करने में सफल हो जाए, लेकिन मन से भाग नहीं सकता है।मन को ईश्वर कहा है।मन से कोई बड़ा नहीं है।

आश्चर्यजनक बात यह है कि,मन का महत्व देश की चुनिंदा जनता को सात वर्ष पूर्व ही समझ में आया है।चुनिंदा लोगों में भी सिर्फ उन लोगों को जिनके पास रेडियो हैं।रेडियो होने साथ साथ  मुकर्रर दिन,मन की बात सुनने की फुर्सत भी होती है।दिन भी भानुवार मुकर्रर किया गया है।

मन का और भावनाओं का सीधा सम्बंध है।मन की बात सिर्फ समझने वालों से की जाती है।

मन की बात का प्रचार प्रसार सुन कर ऐसा प्रतीत होता है कि,सात वर्ष पूर्व लोगों के तन के साथ मन था,भी या नहीं?

इस प्रश्न का उत्तर गीतकार ने गीत की एक पंक्ति में दे दिया है।

तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल

आज जो मन की बात में प्रकट हो रहा है,वह कथन भविष्य में  सूक्तियों के समकक्ष हो भी सकता है?

शरीर में सिर्फ आत्मा हो तो व्यक्ति जीवित अवस्था में है, ऐसा मान सकतें हैं।आत्मा के साथ व्यक्ति के शरीर में मन नहीं हो तो वह व्यक्ति मानसविज्ञान का मरीज हो जाता है।Psychology का petient हो जाता है।

मन निर्मल होना चाहिए।मन रूपी दर्पण पर अहंकार की धूल कभी भी जमना नहीं चाहिए।यदि जिस व्यक्ति के मन रूपी दर्पण पर अहंकार की धूल जम जाती है,उसे अपने वक्तव्यों को बार बार बदलना पड़ता है।

जिन लोगों का मन अहंकार में लिप्त होता है,ऐसे लोगों का मन मैला हो जाता है।यह लोग तन को बेशक़ीमती साबुन से धोते रहतें हैं।मन के मैल को धोना तो मुमकिन नहीं है।इसीलिए तन पर बेशकीमती परिधानों को दिन में बहुत बार बदलतें रहतें हैं।तन की वेशभूषा भी महान व्यक्तियों जैसा श्रृंगारित कर लेतें है। पूर्व में जिस तरह बहुरूपिये होते थे। बहुरूपिया तो लोगों का मनोरंजन कर अपना उदरनिर्वाह करतें थे।फिल्मों में भी अभिनेता भिन्न तरह का अभियान अदा करने के लिए हुबहू  वैसा ही मेकअप कर लेतें हैं।

फिल्मी अभिनेता तो रोल अदा करने के बाद मेकअप उतार देतें हैं।सार्वजनिक जीवन में सलग्न व्यक्ति वेशभूषा को बनाए रखतें हैं।वेशभूषा के माध्यम में लोगों का दिल जीतने की कौशिश करतें हैं।फिर भी कुछ चतुर लोग समझ जातें हैं। यह दिल जीतने के बात नहीं है।वेशभूषा के माध्यम से लोगों की भावनाओं को भुनाने की युक्ति मात्र है।

इसीलिए गीतकार ने एक पंक्ति में लिखा है।

तन के कारण मन के धन को मत माटी में रौंद

मन के दर्पण पर कोई कितना लिखे, कितना भी कहे, लेकिन मन की बात का महत्व समझना हर किसी के बूते की बात नहीं है।

मन बहुत चचंल होता है।कोई व्यक्ति कितना भी स्वयं को चालाख समझे लेकिन मन की बात जुबान पर आ ही जाती है।

पूर्व में लोगों के अंतर्मन में वैराग्य जागता था, तब वे सन्यास लेते थे।योगी बन, वन वन भटकते थे।कलयुग में योगी और सन्यासी न सिर्फ  गृहस्थ जीवन में पदार्पण कर रहें हैं बल्कि सूबे के मुखिया के पद पर भी पदस्थ भी हो रहें हैं।

रामभगवान ने अपने कुल की रीति को बरकरार रखने के लिए वचन को निभातें हुए, सन्यासी का वेश धारण कर वन में गमन किया था। वन में ही पांच वृक्षों की ओट में एक कुटियां बनाकर उसमें निवास किया था।तब त्रेतायुग था।

कलयुग में रामजी का मंदिर ही भव्यदिव्य निर्मित हो रहा है।मंदिर निर्माण की लागत को जानने की चेष्ठा करना अधर्म की परिभाषा में आ सकता है?मंदिर निर्माण में लगने वाला पैसा जो लोग मन से दान देने सक्षम हैं उनके द्वारा मुक्तहस्त दिया जा रहा है।

यह लोग उदारमना कहलाते हैं।

मन के महत्व को समझों।अभी मन की बात की शतक होने वाली है।

एक व्यंग्यकार मित्र से इस लेख प्रतिक्रिया जानना चाही तो उसने लेख पढ़ने के बाद कहा कि, लेख ठीक है।बधाई।

लेखक ने पूछा बधाई क्यों?व्यंग्यकार मित्र ने कहा लेख में मन को महत्व देते हुए  ठंग की बात भी कही गई है।इसलिए बधाई।

शशिकांत गुप्ते इंदौर