ज़िन्दगी
खुल कर जीने की आस फिर से हिलोरें लेने लगी थी
कोई शहर से बाहर घूमने
कोई मूवी ,कोई मॉल
कोई शॉपिंग , कोई पिकनिक
कोई पार्टी, कोई खुलकर होली की टोली और रंगों में डूबा
नेताओं ने भी छोड़ी न कसर रैलियों के नाम पर
जुटी भारी भीड़ हर जगह छोड़ सब चिंता अपनी जान, घर, परिवार की
सबने सारी गिरहें खोल मनचाहा जीना क्या शुरू किया
फिर से घातक कोरोना ने आ दबोचा
रोज़ तेज़ी से बढ़ रहे फिर आंकड़े और मौतें
फिर किसी अपने से कोई अपना हो रहा जुदा
फिर ज़िन्दगी पर गहराने लगा डर का साया
फिर वही खौफ़ सुबह शाम
अब क्या , आगे क्या, क्यों का
पर सभी सवालों से परे तेज़ी से पैर पसार रहा संक्रमण
न कोई उम्र का लिहाज़
न कोई लिंग, जाति, ओहदे
या अमीर गरीब का
बस हो रहा तांडव इस का फिर से हर नगर, हर शहर , हर देश प्रदेश
फिर से बन गए वो हालात जब सब कैद घरों में बस जी रहे थे बंधा सा जीवन
कई महीनों
छूटे कितनों के रोज़गार, नौकरी, हुए थे आमदनी के साधन ठप
रूक सी गयी थी ज़िन्दगी सबकी बस एक ही जगह
घर की चार दिवारी में
हो न फिर से कुछ ऐसा
बस रखो ये ख़्याल
छोड़ सब मस्तियां, नादानियां, लापरवाहियां
हो जाओ सजग अपने लिए, अपनों के लिए, घर, परिवार, समाज , देश के लिए
ताकि फिर से न अपनों से अपना कोई जाए बिछड़ सदा के लिए ।।
.....मीनाक्षी सुकुमारन
नोएडा