हँसने वाली बात पर बस
काम भर मुस्कुराती ये आम
शक्लों सूरत वाली औरतें
अपना किरदार
निभाते-निभाते थक गई हैं।
थक चुकी है,अपनी हल्की-हल्की
पलकों में भारी बोझ
आंसुओं को रखते हुए,
थक गयी सबके लिये चेहरे
पर झूठी संतुष्टि भरी
मुस्कुराहट रखते हुए,
वो मुस्कुराहट जो कभी
आंखों तक गयी ही नही।
कभी उनकी आँखों में झाँकना
मिलेंगे अनगिनत दबाए सपने,
हज़ारों अनकही बातें,
बेइंतहा सवाल और अंतहीन मौन
सब मिल जायेगा उन्हीं आँखों मे।
वही आँखे जो काज़ल लगा
दुनिया को भर्मित करती है,
वो सिर्फ आँखे ही नही सूख
चुकी उदास नदियाँ है,
जिसमें धराप्रभा दर्द है,
अपनों से मिले दर्द
एक कोशिश होनी चाहिए इन
नदियों को बचाने की।
डिम्पल राकेश तिवारी