जैसे कि लकड़ी जलती है,
हर धुंध ही, उपर उठता है,
वैसे ही धरती का कण- कण,
एक दिन तुझमें ही मिलता है।
जो बोल नहीं सकते,
बिन बोले तुझको अर्पित हैं,
पर जो बोलने वाले है,
रट- रट भी तुझे नहीं पाते है।
कण-कण मिट्टी का जुड़ करके
एक कुंभ नया रच जाता है,
फिर चूर- चूर हो वही कुंभ,
मिट्टी का कतरा बन जाता है।
यह प्यास नहीं मिटने वाली,
का भान न सबको होता है,
पर जिसपर तेरी कृपा हो जाए,
वह' मन 'से भी मुक्त होता है।
मथ- मथ कर फेनिल सागर,
विष, ही पहले देता है,
पर आखिरी मंथन से ही,
गागर का अमृत निकलता है।
अंजनी द्विवेदी
हर धुंध ही उपर उठता है