ढूंढते ही रह गए हम ना पता चला|
छूटता ही जा रहा है उम्र का जो है परिंदा,
रोकते ही रह गए पर वह तो उड़ चला|
समय की धारा में सबकुछ बह रहा है रेत सा,
मुट्ठीयों से वह हमारे छुटता रहा|
आज है जो कल वही बनता रहा अतीत है,
यादों की कुछ झलकियो के पल ही रह गया|
मन ही मन हम सोचते ही रह गए जीवन है क्या?
आज है जो कल वही यादों का कारवां|
जिंदगी के इस सफर में कितने राही हैं मिले,
रक्त से बंधन नहीं पर कर्म से जुड़ा |
"रीत" कहती है बचपन फिर से आ जाए मगर,
वह बड़ा ही बेवफा था आगे बढ़ चला |
स्वरचित ,अप्रकाशित एवं मौलिक रचना
लेखिका/ रचनाकार: रीता तिवारी" रीत"