बेशक ना हो जिंदा
पर जिंदा है उसकी नीति
लेकिन बदल गया है उसका रूप
वह हड़प लेता था बिना वारिस का राजपाठ
पर आज के डलहौजी
हड़प लेते है बहुजनों के नायकों को
क्योंकि पता है उनको
उनके जो नायक थे वह हैं अब खाली कारतूस
नहीं रह गए वे किसी काम के
ना रह गयी प्रासंगिक उनकी प्रतिस्थापना
ना ही उनके एकांगी विचार
जो नहीं रहे बहुजनों के हितकर कभी
इसलिए आज के डलहौजी
कभी गांधी तो कभी अंबेडकर
कभी पटेल तो कभी कर्पूरी
कभी जोती बा फुले तो कभी सावित्री बा फुले
कभी बिरसा मुंडा तो कभी टैगौर
कभी तिलका मांझी तो कभी जगदेव बाबू
सबकी मना रहे हैं जयंती
बना रहे हैं उनकी बड़ी बडी मूर्तियाँ
कर रहे हैं आयोजित बड़ी बड़ी सभाएँ
लेकिन कभी नहीं अपनाते उनकी विचारों को
यदि मानते सच में पटेल को तो
यही हाल होता किसानों का
मानते यदि अम्बेडकर को
तो देते ना बराबर का प्रतिनिधित्व
देते न सबको समान अवसर
मानते गांधी को तो देते न शांति का संदेश
मानते जगदेव को तो देते सौ में नब्बे की हिस्सेदारी
मानते जोति बा और सावित्री बा फूले को
तो मुक्त करते मानसिक गुलामगिरी से
और स्थापित करते समतामूलक समाज
मानते बिरसा को तो होता अबुआ दिशुम अबुआ राज
तभी तो डल्हौजी के हड़प नीति पर
कहा था जेम्स ह्यूम ने
जिसकी लाठी उसकी भैंस
तब कम्पनी सरकार थी अब
कॉरपोरेट सरकार।
- सन्तोष पटेल , नई दिल्ली