हमारे हृदय में नफ़रत के बीज क्यों


जब हम सबों के दिल में एक उमंगे एक चाहत कुछ करने की और अपने मेहनत के बल मंजिल तक पहुंचने की ....

यहां तक हमारे जिस्म में बहने वाले लहूं के रंग भी एक .....
फिर यह नफ़रत शब्द हमारे हृदय की उपज में कैसे शामिल हो जाता है ।
शायद जन्म से हमारे संस्कार हमारे परिवार और परिवेश से तो नहीं .....
जहां बचपन से ही हमारे दिलों दिमाग में जाति धर्म मज़हब हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई के बंटवारे में हमारे
दिल को बचपन से ही बाट दिया जाता रहा है .......यह कह कर कि तुम हिन्दू , मुश्किल,सिख, ईसाई ।
और यही से नफ़रत के बीज जन्म लेने शुरू हो जाते हैं ‌
और जब यह बीज बड़ा होकर यौवन के दहलीज पर कदम रखते हैं तब यह नफ़रत की आग में तपकर इतना विस्फोट और विशाल वृक्ष में तब्दील हो चुका होता है कि ....... अपने मजहब अपने धर्म संप्रदाय संस्कृति के अलावे और किसी का कुछ नहीं सुझता है ‌और .... अपनी मंजिल की दिशा से भटक कर इस बेतुकी अवसादी सोच में भटक कर रह जाता है ...... अपनी जिंदगी तो तबाह बर्बाद करते ही हैं साथ ही साथ औरों की भी ‌....... इस नफरत की आग की लपटे इतनी तेज हो जाती है कि सब कुछ जला जला सा दिखने लगता है दूर दूर तक बस जले राख के धुआं .......
एक धर्म मज़हब वाले दूसरे धर्म मज़हब वाले के लहूं के प्यासे हो कर रह जाते हैं .......
जिसे कभी देखे नहीं जिससे कभी मिले नहीं या फिर जिसके सपने या फिर जिसके कंधों की जिम्मेदारी को जानें नहीं ..... बिना जाने बिना सोचे सामने वाले दूसरे धर्म के लोगों को धर्म मज़हब जाति के नाम पर बली चढ़ा दिए जाते हैं ‌...... ऐसा करने से पहले एक बार भी नहीं सोचते उसके भी सपने, उसके भी अरमान,उसकी भी जिम्मेदारी ‌हमारे जैसे हो सकते हैं .................यह नफ़रत की आग तो बचपन से हमारे विवेक और विचार धारा को निगल चुकी होती है .......... शायद इसीलिए हमारे विवेक और विचार धारा इंसानियत दम तोड़ चुकी होती है ................. और शायद तभी यह नफ़रत हमारे हृदय में जकड़कर बैठ चुकी होती है ........

अंजु दास गीतांजलि पूर्णियां बिहार ।