बैलेंस शीट में प्रविष्टियां - ऋण की स्वीकृति के लिए नहीं
ऋण दाताओं को रिकवरी के लिए अब आधार मजबूत करना होगा- एड किशन भावनानी
गोंदिया - भारत में ढांचागत न्यायिक प्रणाली बहुत ही सुंदर मजबूती के साथ बनी हुई है हर एक क्षेत्र में उसमें संबंधित एक न्यायिक प्राधिकरण अधिकरण बना हुआ है जो सिर्फ केवल अपने ही परीक्षण तक कार्य संपादन करता है, तथा अपने क्षेत्राधिकार व अधिकार क्षेत्र तक ही उसकी कार्यवाही सीमित होती है और उसके चेयरपर्सन व सदस्य उस विशेषज्ञता के धनी होते हैं और निर्णय प्रक्रिया व निर्णय क्षमता काफी उत्तम होती है और संतोषजनक होती है इसमें कुछ अर्ध न्यायिक प्राधिकरण, प्रशासनिक प्राधिकरण, अपीलीय प्राधिकरण शामिल हैं, एक जानकारी के अनुसार भारत में कुल 19 न्यायाधिकरण हैं जैसे केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण, सीमा शुल्क उत्पाद शुल्क और बिक्री कर अपीलीय न्यायाधिकरण, नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट न्यायाधिकरण, याने राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) ... एनसीएलटी एक अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है जो संरचनाओं, कानूनों को संभालता है और विवादों का निपटारा करता है जो कॉर्पोरेट मामलों से संबंधित हैं। NCLAT का गठन भारत के संविधान में अनुच्छेद 245 पर किया गया है। बता दें कि सबसे पहले किसी कंपनी के दिवालिया होने पर मामला नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) के पास जाता है। यहां इसके लिए इनसॉल्वेंसी प्रोफेशनल नियुक्त किया जाता है, जिसे यह जिम्मा सौंपा जाता है कि वो 180 दिनों के भीतर कंपनी को रिवाइव करने का प्रयास करे। अगर कंपनी 180 दिनों के भीतर रिवाइव हो जाती है तो फिर से सामान्य कामकाज करने लग जाती है. अगर ऐसा नहीं होता तो उसे दिवालिया मानकर आगे की कारवाई की जाती है। अभी मंगलवार दिनांक 22 दिसंबर 2020 को राष्ट्रीय कंपनी अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) का एक ऐतिहासिक फैसला आया जिसमें कहा गया कि बैलेंस शीट में प्रविष्टियां, ऋण की स्वीकृति के लिए नहीं है, न्यायाधिकरण की 5 सदस्यों की एक बेंच जिसमें न्यायमूर्ति बंसीलाल भट्ट, (एक्जिस्टिंग चेयरमैन), न्यायमूर्ति वेणुगोपाल एम(न्यायिक सदस्य), न्यायमूर्ति अनंत विजय सिंह (न्यायिक सदस्य), कांति नरहरी (तकनीकी सदस्य) तथा श्री शाह मेला (तकनीकी सदस्य) शामिल थे बेंच ने कंपनी अपील (दिवालियापन) क्रमांक 385/ 2020 विष्णु जयसवाल बनाम असिस्टेंट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी इंडिया लिमिटेड व अन्य के मामले में अपने 30 पृष्ठों और 16 प्वाइंटों के अपने आदेश में कहा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट व अनेक माननीय हाईकोर्ट ने लगातार आयोजित किया कि कंपनियों की बैलेंस शीट में जो एंट्रियां है वह भारतीय लिमिटेशन एक्ट 1963 की धारा 18 के अंतर्गत ऋण की स्वीकृति को दर्शाती है यह एक सेटल्ड ला है, वी पदम कुमार के केस में, जिसमें कि अभी पुनर्विचार की आवश्यकता है आदेश कॉपी के अनुसार,
इस वर्ष सितंबर में, न्यायमूर्ति जरत कुमार जैन, सदस्य (न्यायिक), न्यायमूर्ति बलविंदर सिंह, सदस्य (तकनीकी) और वी. पी सिंह सदस्य (तकनीकी) से युक्त एक बेंच ने विचार व्यक्त किया कि सर्वोच्च न्यायालय और कई उच्च न्यायालयों द्वारा निर्धारित अनेक पूर्व-नियमों को नजरअंदाज करके वी. पदमकुमार में बहुमत के निर्णय को अस्वीकार किया गया। यह मुद्दा कॉर्पोरेट ऋणी द्वारा, उधारदाताओं के एक संघ द्वारा दाखिल दिवालिया याचिका को स्वीकार करते हुए न्याय निर्णयन प्राधिकरण द्वारा पारित आदेश के खिलाफ दायर एक अपील पर विचार करते समय सामने आया। कॉर्पोरेट ऋणी ने प्रतिवाद किया कि आवेदन वाद के प्रोद्भवन की तारीख से 3 वर्ष की अवधि के भीतर दाखिल किया गया था। यह तर्क दिया गया कि खाते फरवरी 2014 में अनर्जक आस्ति घोषित किए गए, लेकिन उध्दाकार और दिवालियापन संहिता की धारा 7 के तहत आवेदन केवल दिसंबर 2018 में दायर किया गया था। न्यायनिर्णायक प्राधिकारी ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया कि आवेदन की समय-सीमा समाप्त हो गई थी, क्योंकि ऋण को लेखा पुस्तकों की प्रविष्टियों द्वारा स्वीकार किया गया था,इसलिए मुकदमा करने का अधिकार धारा 18 (लिखित रूप में स्वीकृति) के संदर्भ में बढ़ाया गया था। पांच सदस्यीय पीठ, जो संदर्भ पर विचार कर रही थी, उसने नोट किया कि यह सर्वोच्च न्यायालय के प्राधिकृत घोषणाओं और बाध्यकारी पूर्ववादियों के आधार पर था कि वी पदमकुमार मामले में पीठ इस निष्कर्ष पर पहुंची कि धारा 7 के तहत परिसीमा की अवधि का परिकलन करने के प्रयोजन के लिए एनपीए है। इसके तहत उच्चतम न्यायालय के निर्णय का उल्लेख बाबुल वर्धजी गुर्जर बनाम वीर गुर्जर अल्युमिनियम इंडस्ट्रीज लि. एंड ए. आर. में किया गया।, जिससे यह पाया गया कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 18 (लिखित रूप में अभिस्वीकृति) के लिए आई एंड बी कोड के तहत कार्यवाही के लिए कोई आवेदन नहीं होगा। पांच सदस्यीय खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला,"इसलिए, तुलनपत्र/वार्षिक विवरणी में प्रतिबिंब द्वारा देयता की स्वीकृति के संबंध में उठाया गया मुद्दा अप्रासंगिक होगा।" इसने जोड़ा, परिसीमा अधिनियम की धारा 18 के परिधि के भीतर परिसीमा अवधि की समाप्ति से पहले कॉर्पोरेट ऋणी द्वारा लिखित रूप में किए गए पावती के आधार पर डिफ़ॉल्ट की तारीख बढ़ाई जा सकती है। पांच सदस्यीय बेंच भी इस राय का था कि रेफरल बेंच 'वसूली कार्यवाही' और 'दिवालिया रिस्क' प्रक्रिया के बीच भेद करने में विफल रहा था। जिग्नेश शाह और आईआर पर निर्भरता रखा गया था। भारत और अन्य संघ, जिससे सर्वोच्च न्यायालय ने कंपनी अधिनियम के तहत उपचार की प्रकृति को वसूली तंत्र से अलग माना और कहा कि परिसीमा अधिनियम की धारा 18 के तहत देयता की स्वीकृति पर, कार्यवाही समाप्त करने के उद्देश्य से ऋण को जीवित रखने के लिए, प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है.
बेंच ने टिप्पणी की कि उपरोक्त स्थिति संबंधित में दिवाला अधिकारिता में तब तक समान रूप से अच्छी है, जब तक कि उच्चतम न्यायालय द्वारा एक विपरीत दृष्टिकोण न लिया जाए। "दिवाला समाधान तंत्र" ऋण "और 'डिफ़ॉल्ट' पर आधारित होता है।नागरिक विवादों और जटिल मुद्दों के न्यायनिर्णयन को आई एंड बी कोड के परिक्षेत्र और दायरे के भीतर अनुज्ञेय नहीं है.एनपीए से आगे की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अब घोषित विधि के संदर्भ में वर्जित प्रांत होगा और कॉर्पोरेट ऋणी के खाते के वर्गीकरण के आधार पर चूक की राशि के संबंध में दायित्व होगा क्योंकि एनपीए समय वर्जित होने पर नया जीवन नहीं दे सकता है। "
कर विशेषज्ञ एड किशन भावनानी गोंदिया (महाराष्ट्र)