मैं सिर्फ दीवाना था,
पागल वो कर गया,
ढूंढना हुआ मुश्किल,
न जाने किधर गया,
एक झलक क्या उसकी,
मेरी आंखों ने देख ली,
रातों की नींद और मेरा,
सुकून वो छीन कर गया,
मुहब्बत का दावा था,ओर,
साथ में किये वादे हज़ार भी,
कैसा दिया धोका ,ग़ैर का,
वो बन कर संवर संवर गया,
सिसकियों से ही आबाद,
है , ये आंगन मेरे दिल का,
और तस्व्वुर उसका दाग़,
मेरे मासूम ज़िगर पे कर गया,
मुहब्बत का हुनर हमको ,
कहाँ,आता है ,मुश्ताक़,
खेल ऐसा था के मैं बना,
बन कर फिर से बिखर गया,
डॉ. मुश्ताक़ अहमद
शाह। "सहज़"
मध्यप्रदेश